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चतुर्थ भाग ।
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रामचंद्रने धीर वंधाया तब के कई कहने लगी कि --हे पुत्र 1 उठो, अजोध्या चलो, सुखसे राज्य करो। तुम्हारे बिना मेरे सव नगर वन समान है। तुम बुद्धिमान हो, भरतको समझा दो, हम - स्त्रिये नष्टबुद्धि हैं, मेरा अपराध क्षमा करो। तब रामचंद्रने कहा कि-- हे माता ! तुम तौ सब बातों में प्रवीण हो । क्षत्रियोंका यही प्रण है कि जो वचन कहैं सो न चुकै । जो विचार किया उसके विरुद्ध न करें। हमारे पिताने जो वचन कहा सो हमको तुमको सवको शिरोधार्य करना चाहिये । इसमें भरतको कोई अपकीर्त्ति नहीं है । भरत से कहा- भाई चिंता मत कर । माता पिताकी तथा मेरी आज्ञा पालन करनेमें कोई भी दोष नहिं दे सकता। इसप्रकार समझा कर समस्त सामंत और मंत्रियों के सन्मुख फिरसे भरतका राज्याभिषेक करके हृदयसे लगा बहुत दिलासा देकर सबको विदा किया । अजोध्या पहुंच भरत रामकी आज्ञानुसार पिता के समान प्रजाका पालन करने लगा । और मट्टारक नामके मुनिमहाराजके पास ऐसी प्रतिज्ञा भी कर ली किअब राम के दर्शन होते ही दीक्षा ग्रहण करूंगा ।
राम लक्ष्मण सीता उस वनसे चलकर सामको एक तापसियोंके प्राश्रममें पहुंचे । ये तापसी स्त्री पुत्र कन्या सहित वनमें ही रहकर अनेक प्रकारका कायक्लेश करते थे सो इन लोगोंको पुरुषोत्तम जान फल जल शय्यादिसे वहुत ही अतिथि सत्कार किया और वहीं पर रहनेका आग्रह किया परंतु ये वहांसे चल दिये । अनेक तापसियोंकी स्त्रियें और कन्या, पुष्पादि ग्रहण करने
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