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________________ चतुर्थ भाग। ३५३ कार्तिकेय मुनिको अचेत पडे देखकर उनकी पूर्वजन्मकी माता जो इस जन्ममें व्यंतरनी हुई है मोरनीका रूप लेकर आई और उन्हें उठाकर शीतलनाथ भगवानके मंदिर में निरापद स्थान पर रख दिया, मुनिकी अवस्था बहुत खराब हो चुकी थी। उनके अच्छे होनेकी कोई सूरत न थी इस कारण मूलासे चैतन्य होने पर उन्होंने सन्यास धारण कर लिया सो मरकर स्वर्गधाम पधारे। उस समय देवोंने आकर उनकी भक्ति पूजा की थी। उसी दिनसे वह स्थान कार्तिकेय तीर्थसे प्रसिद्ध हुआ और वे वीरमतीके भाई थे उसने उनकी पूजाकी थी इस कारण दूसरा भाई वीजिका त्यौहार भी तवहीसे चलता है। ये ही कार्तिकेय स्वामी प्राकृत द्वादशानुप्रेक्षा नामक ग्रंयके फर्ता हैं जो कि इस समय स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नामसे “प्रसिद्ध है। कहते हैं कि ये कार्तिकेयस्वामी महावीरभगवान से पहिले और पार्श्वनाथभगवानके पीछे किसी समयमें हो गये हैं। ६५. जकडी (६) जिनदासकृत । राग आयासिंधु । थिर चिर देवा गणहरसेवा, कर गुनमालाज्ञान | थिर चिर जीवा भरमनि भमता, करि करना परिनाम । करि कहनापरिनाम सुद्धता, गुणकरि सवै समाना। कर्मतनी थिति प्रतिवधि दौल, निणय केवलबाना ॥ .
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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