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जैनवालबोधक· यौं जान दिनु जतन करीजै, परिहरियै परपीडा। मुर्ख होय जिन श्राप वधावी, ज्यौं कुसियाला कीडा ॥१॥ ज्यौं कुसियाला अपनी लालो, फंदति श्रापोश्राप । त्यौं तू पाला विकलपमाला, बंधति पुन रु पाप ॥ पुन्न रु पाप दुवै दिदवंधन, लोकशिखर किन जावै । थिर बर होय हूँगति.भीतर, रह्यौ चिदानंद दावे ॥ चितमें चेत चमकत नाहीं, साथि सरूपी कूड़ा। इंद्री पंचतनैं वलि पड़करि, विषय विनोदां बूड़ा ॥२॥ विपय विनोदां श्राप विरोध्या, जात निगोद अपार । तहां काल अनंता दुःख सहता एकलडो निरधार।। एकलडो निरधार निरंतर, जामन मरन करतौ। . कर्म विपाकतनें वसि पड़ियो, फिर फिर दुःख सहतौर .वरलै कौन स्वयंकृत कर्महि, यौहि अनादि सुभाचौ। .
वांछित सुक्ख कहाँ किमि पावौ, दसणतणो अभावौ ॥ ३॥ दसण गुण विन जात के दिन, सो दिन धिकधिक जानि। धन्य सोही सोही परभिन्नो, भ्रांति न मनमहि आनि। भ्रांति सुमिथ्यादृष्टीलच्छन, संशयरहित सुदिष्टी। यौं जान विन गह्यौ गहीजे, पद पावै परमिष्टी। ए दुइ मेद जिनागम कहिया, ते तनमैं अवधारै। सुद्ध सुसम्यकदरसन कारन, मिथ्यारष्टि निवारै ॥४॥
१ कोशेका.अर्थात एक प्रकारके रेवामका कीरा । २ नारसे । ३ोनों। ४वेग । ५ जिस दिन । .... ... .... . .. .. . .