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________________ રહ जैनवालबोधक इस सातवें गुणस्थानमें तीन प्रकृतिका और भी तय करके शुक्ल"ध्यानके प्रथम पायेको प्रारंभ किया । वे क्षपकश्रेणी के मार्ग से अगले गुणस्थानों पर चढ़ने लगे। नववें गुणस्थान चढ़ कर छत्तीस कर्मप्रकृतियोंका तय किया । दशवे गुणस्थान में सूक्ष्म लोभको नष्ट करके ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर बारहवें गुणस्थानमें पहुंच कर सोलह प्रकृतिका नाश किया इस प्रकार चार घातिया कर्मोकी ६३ प्रकृतियोंको नष्ट करके चैत्र कृष्णा · १४ के दिन केवलज्ञानको प्राप्त किया और तेरहवें गुणस्थान पर आ गये । • भगवानको केवलज्ञान हो जाने पर त्रिलोकी के समस्त पदार्थ हाकी तीन रेखाकी तरह दीखने लगे । उनका शरीर जमीन से गंधकुटीके मध्य ऊंचा आकाशमें अधर होगया उस वनके समस्त वृक्षों पर बिना ऋतुके हो फत्र दीखने लगे, समस्तप्रकार की वेलों पर पुष्प आ गये। इंद्रका प्रासन कंपायमान हुआ तव उसने अवधिज्ञान से जान लिया कि भगवानको केवलज्ञानउत्पन्न हो गया उसी वक्त कुवेर प्रादि देवोंने भगवानका समयशरण रचा, वारह सभा बनी। वहां पर पशु पक्षी यादि सवने हो अपने परस्परका वैरभाव छोड़ दिया और वे भगवानके उपदेश को सुनके केलिये सभामें आकर बैठे । इसके पश्चात् स्वयंभूनामके गणधरने भगवान से प्रार्थनाको कि- हे प्रभो ! ये जीव अज्ञानरूपी अंधकार में पड़े हुये दुःख भोग रहे हैं सो इनको आप धर्मोपदेशरूपी प्रकाश देकर मार्ग दिखावें । इस परसे भगवानने समस्त जीवोंकी समझमें आनेवाली ·
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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