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________________ चतुर्थ भाग । २१७ दिव्य ध्वनिमें धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया । अनेक जीवोंने अनेक प्रश्न किये उन सबका समाधान दिव्यध्वनि द्वारा भगवानने किया जिनको सुनकर कितनों होने दिगंबर मुनिको दीक्षा ली, कितने ही पशुओंने भी अणुव्रत धारण किये। कितनी स्त्रियां अर्जिका हुई और अपने पतिके साथ ही साथ वनमें चल दीं कितने ही मनुष्योंने तथा पशुओंने और देव देवियोंने सम्यक्त्व ग्रहण किया। इस समय कमठका जीव शंवर नामका ज्योतिषी भी यहां पर आया था उसने भी भगवानके मुख से उपदेश सुना । जिस से मिथ्यात्व नष्ट हो गया और भगवानके चरणोंमें पड़कर उसने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया । उस वनमें सात सौ अन्यमती तपस्वी रहते थे, उनने भी जितेंद्र भगवानकी समवशरण विभूति देखी जिससे उनको समीचीन ज्ञान हो गया । भगवानको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया और अपने पूर्वके मिथ्या आचरणोंका पश्चात्ताप करके संयम धारण किया । तत्पश्चात् स्वयंभू गणधरने भगवानको वाणीको द्वादशांग चौदह पूर्वरूप रचना करके सुनाया जिससे समस्त सभायें प्रत्यंत हर्पित हुई । इसके पश्चात् इन्द्रने खडे होकर भगवानसे प्रार्थना करी कि हे जगत्पते ! जगह २ के भव्य जीवोंको उपदेश देनेके लिये आप विहार करिये। यह सुन भगवान विहार करनेको निकले, काशी, कोशल, पांचाल, महाराष्ट्र, मारवाड़, मगध, अवनी, मालवा, अंग, बंग आदि प्रार्य खंडके देशोंमें विहार करके धर्म का उपदेश किया। उनके साथ २ चतुर्निकाय के देव और सौ इन्द्र चलते थे और स्वयंभू आदि समस्त भागमके ज्ञाता दश
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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