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________________ चतुर्थ भाग। ४६ अर्थ-जिस प्रकार दावाग्नि वनको भल करती है उसी प्रकार जो असत्य वचन अपनी कीर्तिको भल कर देता है और जिस प्रकार जलके सींचनेसे वृक्ष बढ़ता है उसी प्रकार जिस के कारण अनेक दुख उपजते हैं तथा जिस प्रकार सूर्यके और पदार्थके वीचमें वह नहिं होती उस प्रकार जिसमें धर्मकी कया नहिं सुनी जाती ऐसे मिथ्या वचनको विचक्षण लोग कदापि नहिं अपनाते ॥२॥ रोडक छंद । कुमति कुरीत निवास, प्रीत परतीत निवारन । रिद्धसिद्ध सुख हरन, विपत दारिद दुखकारन ॥ परवंचन उतपत्ति, सहज अपराध कुलच्छन । सो यह मिथ्या वचन, नाहि श्रादरत विचच्चन ॥३॥ अर्थ-मिथ्या वचन कुरीतियोंका घर है, प्रीति और परतीतका नाशक है, रिद्धिसिद्धि और सुखका हरन करनेवाला है, दारिद और दुःखोंका कारण है, दुसरोंको ठगाई फरनेका उत्पत्ति स्थान है, स्वाभाविक अपराध व कुलच्छन है इस कारण वित्रक्षण पुरुष मिथ्या वचनका कदापि प्रादर नहिं करते ॥३॥ घनाक्षरी कविता। पावकतें जल होय, वारिधते थल होय, शस्त्रते कमल होय ग्राम होय बनतें । कूपते विवर होय, पर्वतते घर होय। वासवते दास होय हितू दूरजनते। . C
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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