SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 7 કેટ जैनवालबोधक १७. सत्यवचन प्रशंसा. छप्पय । गुणनिवास विश्वास वास, दारिद दुख खंडन । देव अराधन योग, मुक्ति मारग मुख मंडन | सुयश केलि आराम, धाम सजन मन रंजन । नाग वाघ वश करन, नीर पावक भय भंजन ॥ महिमा निधान संपति सदन, मंगल मीत पुनीत मग । सुखरासि वनानि दास भन, सत्य वचन जयवंत जग ॥ १ ॥ अर्थ- सत्य वचन जगतमें जयवंत हो क्योंकि - सत्य वचन गुणों का निवास है, विश्वासका स्थान है, दरिद्रोंका दुःख खंडनेवाला है । देवोंके द्वारा प्राराधनीय है । मुक्तिमार्ग मुखका मंडन यानी शोभा है। सुयशरूपी केलिके आरामका धाम ( घर ) है । सज्जनोंका मनरंजन करनेवाला है। सांप व्याघ्रको वश करनेवाला है । जल अनिका भय दूर करनेवाला है । महिमाका खजाना, संपदाका घर, मंगलकारक मित्र या पंवित्रताका मार्ग और सुखकी राशि है ॥ १ ॥ सवैया ३१ मात्रा | जो भस्मंत करें निज कीरति, ज्यों वन अग्नि दहै वन सोय!. जाके संग अनेक दुख उपजत, बढै वृक्ष ज्यों सींचत तोय ॥ जामैं धरम कथा नहिं सुनियत, ज्यों रवि वीच छांहिं नहि होय । सोही मिथ्या वचन बनारसि, गहत न ताहि विचक्षण होय ॥२॥
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy