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________________ चतुर्थ भाग । तजि मुनिराज निज कारज विचारा है । तातै गहो धर्मसार, स्वर्ग मोक्ष सुखकार, सोई लहै भवपार जिन धर्म धारा है ॥ ६ ॥ सोचत हो रैन दिन किहि विधि आवै धन, सो तौ धन धर्म विन किनह न पायो है। यह तौ प्रसिद्ध बात जानत जिहान सब, धर्मसेती धन होय पापसों बिलायो है । धर्मके कियेतें सब दुःखको विनास होत सुखको निवास परंपरा मोख गायो है। तांत मन वच काय धर्मसों लगन लाय, यह तो उपाय वीतराग जी बनायो है ॥ १० ॥ भम्यो तू अनंती वार सम्यक न लह्यो सार, ता देव धर्म गुरु तीनों ठहराय रे । लागि रह्यो धन धाम इनसों है कहा काम, जपै क्यों न जिननाम तलों सहाय रे । क्रोध है कठिन रोग छिमा औपवी मनोग, ताको भयो है संयोग संगत उपाय रे. पूरव कमायो सो तौ इहां प्राय खायो अब, करि मनलाय जो पै आगें जाय खाय रे ॥ ११६ ॥ वाग चलनेको त्यार ढीलो तीरथ मकार, झूठ कहनकों हुंस्यार सांचे ना सुहाय रे । देखत तमासा रोज दर्शनको नांहि खोज, ६ ८१
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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