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जैनवालबोधक
यह कुटुंब स्वारथके साथी, स्वारथ विना करत हैं खार। तातें ममता छाड़ि सुजान, गहो जिनधर्म सदा सुखकार ॥ ६ ॥ चेतन जो तुम जोरत हो धन, सो धन चलें चलें नहि लार । जाको श्राप जानि पोपत हो, सो तन जरिके है है द्वार विषय भोग सुख मानत हो, ताकी फल है दुःख अपार । यह संसार वृक्षसेमरकों, मान को मैं कहूं पुकार ॥ ७ ॥ सवैया इकतीसा |
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सीस नाहि नम्यो जैन कान न सुन्या सुर्वेन, देखे नाहि साधु नैन, ताकी नेह भान रे । चाल्यो नाहि भगवान करते न दयो दान.
उरमें न दया आन, यों ही परवान ने ॥ पापकरि पेट भरि, पोठ दीन तीय पर,
पांव नांहि तीर्थ करि सहीसेती जान रे । स्याल कहै बार बार अरे सुनि श्वान यार, इसको तू डारि डारि देव निंद्य खान रे ॥ ८ ॥
देखो चिदानंद राम ज्ञान दृष्टि खोल करि,
तू
तात मात भ्रात सुत स्वारथ पसारा है । तौ इन आपा मानि ममता मगन भयो, बह्यो भ्रममाहि जिनधरम विसारा है ॥
यह तो कुटुंब सब दुःख ही को कारन है,
१ सेमरके वृक्षमें फल तो सुन्दर होते हैं परंतु फलोनें निःखार रूई होती है ।