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________________ ७३ चतुर्थ भाग । पुन्य उदै गज वालि महारथ, पाइक दौरत है अगवानी । कोमल अंग स्वरूप मनोहर, सुंदर नारि तहां रतिमानी ।। दुर्गति जात चलै नहिं संग, चलै पुनि संग जु पापनिदानी । यों मनमांहि विचारिसुजान, गहो जिनधर्म सदा सुखखानी ॥२॥ मानुष भौ जहिके तुम जो न, कलो कछु तो परलोक करोगे। जो करनी भवकी हरनी, सुखकी धरनी इस माहि बरोगे॥ सोचत हो अब वृद्धि लहैं, तब सोचत सोचत काठ जरोगे। फेर न दाव चली यह श्राव, गहो निजभाव सु श्राप तरोगे ॥३॥ आव घटै छिन ही छिन चेतन, लागि रह्यो विपया रस ही को फेरि नहीं नर आव तुमै, जिम छाड़त अंध घटेर गहीको । आगि लगे निकलै सोई लाभ, यही लखिकै गहु धर्म सहीको श्राव चली यह जात सुजान, गई सु गई अव राख रहीको ॥४॥ . कुंडलियां। . यह संसार श्रसार है, कदली वृत समान । यामें सारपनो लखै, सो मूरख परधान ॥ सो मूरख परधान मान, कुसुमनि नभ देखै । सलिल मथै घृत चहै, शृंग सुन्दर खैर पैखै ॥ अवनिमाहि हिम लखै, सर्पमुखमांहि सुधा चह । जान जान मनमाहि, नांहि संसार सार यह ॥ ५ ॥ ____ कवित्त ३१ मात्रा। तातमात सुत नारि सहोदर. इन्है आदि सवही परिवार । इनमें वास सराय सरीखो, नदी नाव संजोग विचार ॥ . १ आकाशके फूलोंको । २ गधेके सुन्दर सींग । ३ वरफ। .
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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