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चतुर्थ भाग ।
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काल के प्रारम्भ से होने लगते हैं। इसी हिस्से में जीवन चलाने के अन्यान्य साधनोंकी उन्नतिका प्रारम्भ होता है । इसी कालमें चौवीस तीर्थकर (महा पुरुष ) उत्पन्न होते हैं और अपने शानसे सच्चे धर्मका प्रकाश करते हैं । इनकी उपाधि तीर्थकर हुआ करती है, इस चौथे काल तक ही मोक्षमार्ग जारी रहता है, इस के बाद मोक्ष जाना बंद हो जाता है इस कालको ही सत्युग कह सकते हैं। चक्रवर्ती, नारायण प्रतिनारायण आदि प्रसिद्ध शलाका पुरुष भी इसी चौथे कालमें होते हैं, जिनका कुछ वन आगे के पाठमें दिया जायगा ।
इसके पश्चात् अवसर्पिणी कालका पांचवा हिस्सा दुःपमा नामका होता है, यह इक्कीस हजार वर्षका होता है । इसमें मनुष्य शरीरकी आयु बल और ऊंचाई बहुत कम हो जाती है। इसके प्रारम्भमें तौ सात हाथका शरीर होता है और १२० वर्षकी आयु होती है । फिर प्रति हजार वर्षमें पांच वर्ष आयु घटती जाती है । अंत समय में दो हाथका शरीर और २० वर्षकी श्रायु रह जाती है उस समय मनुष्य मांसभक्षी और वृक्षोंपर बंदरोंकी समान रहने वाले होते हैं । धर्मका सर्वथा अभाव हो जाता है ।
छठे भाग में और भी अवनति हो जाती है, इस कुठे कालका नाम दु:पमादुपमा है, इस कालके जय उनचास दिन बाकी रह जाते हैं, धूल, हवा, पानी, अग्नि, पत्थर, मिट्टी, लकड़ीकी सात सात दिनों तक वर्षा होती है. अर्थात् प्रबलता होती है और इसकी प्रबलता के कारण प्रार्यखंडके संपूर्ण पशु, पक्षी मनुष्य नगर, ग्राम, देश, मकान आदि नष्ट हो जाते हैं। इसीको प्रजय
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