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________________ १६ जैनवालबोधक कोड़ाकोड़ी सागरका होता है। इस विभागके मनुष्योंकी प्रायुएक पल्यकी और ऊंचाई एक कोसकी (चार हजार गजकी ) होती है । इस कालके मनुष्य एक दिन बाद आंवले चरावर खाते हैं । इस कालमें भी आयुकायादि क्रमसे घटते जाते हैं, यद्यपि इतिहासका प्रारम्भ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके प्रथम विभागसे ही प्रारम्भ होता है, परन्तु प्रकृत इतिहासका प्रारंभ तीसरे विभाग के अंत से ही होता है क्योंकि इस तीसरे हिस्सेके अंत तक मनुष्यों को विना परिश्रम के भोगोपभोगकी सामग्री कल्पवृक्षों से हो प्राप्त होती रहती है और इनमें कोई धर्म कर्मका आचरण भी नहिं रहता जिससे कि मनुष्योंके जीवन चरित्रमें परिवर्तन हो । इस तीसरे फालके अंत में ही कुलकरोंकी (मनुओं की) उत्पत्ति होती है। कुलकरों की उत्पत्तिसे पहिले मनुष्योंका कोई नाम नहि होता, स्त्रियां पुरुषोंको प्रार्य और पुरुष स्त्रियोंको आर्य कहकर पुकारते हैं और इस समय में कोई वर्ण भेद भी नहिं होता सब एकसे होते हैं। चौथा विभाग व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरका होता है, इस कालका नाम दुपमासुषमा काल होता है । इसके प्रारंभ में मनुष्यकी आयु ८४ लाख पूर्वकी होती है । और शरीर की ऊंचाई ग्यारह सौ गजको होती है, इस कालके अंतमें जाकर शरीरको ऊंचाई ७ हाथकी रह जाती है, यह समय कर्म भूमिका कहलाता है, क्योंकि इस समय में मनुष्योंका जीवन धारण करनेके लिये व्यापारादि कार्य ( कर्म ) करने पड़ते हैं । राज्य, व्यापार, धर्म, विवाह, विद्याध्ययनादि समस्त कार्य इसी
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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