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चतुर्य भाग । मुत्रकी बाधा वा कोई बीमारी नहिं होती। पुरुष स्त्री दोनों एक ही साथ एक ही उदरसे पैदा होते हैं । युवा होकर पति पत्नीवत् व्यवहार करते हैं. इस कालमें इस भूमिको भोगभूमि कहते है। मनुष्यको भोगभूमियोंमें बहन भाईकासा नाना मानना नहिं होता। यत्र आभूषण आदि भोगोपभागकी सामग्री दश प्रकारके कल्प वृक्षोंसे प्राप्त होती है। ये कल्पवृत्त पृथिवी जाति के परमाणुओंके होते है, वनस्पति जातिके नहिं होते । पुत्री पुत्रके पैदा होते ही माता पिता उसी वक्त मर जाते हैं। वालक अपने अंगूठेका रस चूस २ कर ४६ दिनमें पूर्ण युवा हो जाते हैं। स्त्री पुरुष दोनों साथ मरते हैं। मरते समय स्त्रीको छोक और पुरुषको जंभाई पाती है । इस समयमें कमसे सपको श्रायु कायादि कम होते जाते हैं।
इस उत्तम भोगभूमिके पश्चात् तीन कोडाकोड़ी सागरका सुषमा काल पाता है इस कालमें मध्यम भोग भूमिको सी सव बातें होती है अर्थात् इस फालके प्रारंभ होनेके समय मनुष्योंकी ऊंचाई घटकर दो कोशकी आठ हजार गजकी) प्रायु दोपल्यकी होती है। यह भी क्रमशः घटती जाती है। भोजन दो दिन बाद बहेड़ेकी बराबर करते हैं। भोजनादि सामग्री सव कल्पवृक्षोंसे पाते हैं । इन दोनों कालोंमें कोई राजा महाराजा नहिं होता सूर्य चन्द्रमाका प्रकाश भी ज्योतिरंग जातिक फावृत्तोंके सामने प्रगट नहिं होता । सिंहादि र जन्तुओंका भी स्वभाव शांत रहता है। . इसके पश्चात् सुपमादुःपमा नामका तीसरा विभाग दो