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________________ चतुर्थ भाग । ३४५ नीय हो गये। जिसकी जगह तू उल्टी निंदा कर रही है। यह बात पूरी भी न होने पाई थी कि जयावतीने श्रखके इशारेसे. समझाया कि तू चुप रह, चोचमें क्यों बोलती है ? कोशल ठीक तौ नहिं समझ पाया परंतु इतना अवश्य ज्ञान हो गया कि मेरी माने मुझे सच्ची बात नहिं वतलाई इतनेमें, रसोइया सुकोशलको भोजनार्थ चलनेको शर्थना करने लगा ! सुकोशलने भोजनार्थ जानेको इनकार कर दिया । माता वगेरह सवने कहा कि चलो ! बहुत समय हो गया परंतु सुकोशलने कहा "जब तक उन महात्माका सच्चा २ हाल न जान लूंगा तब तक मैं. भोजन नहिं करूंगा। जयावतीको सुकोशलके इस आग्रहमे कुछ गुस्सा था गया सो वह तो वहांसे चली गई। पीछेसे सुनंदाधायमाताने सिद्धार्थ मुनिको सब बातें उसे समझा दीं । सुन कर लुकोशलको बड़ा दुःख हुआ और साथ ही उसे संसार शः रीर भोगों से कुछ वैराग्य भी हो आया। वह उसी वक्त मुनिमहाराजके पास गया और उन्हें विनयसहित नमस्कार करके धर्म श्रवण करनेकी इच्छा प्रगट की। सिद्धार्थ मुनिमहाराजने उसे मुनि और गृहस्थका स्वरूप भिन्न भिन्न प्रकारसे विस्तार सहित सम काया । सुकोशलको गृहस्थधर्मपरं रुचि न होकर मुनिधर्म बड़ा पसंद आया और अपनी स्त्री सुभद्राको गर्भज संतानको अपने शेठ पदका तिलक करके माया ममता धन दौलत और स्वजना परिवारको त्यागकरके अपने पिताके पास ही मुनिदीक्षा लेकर चनको चल दिया | . एक मात्र पुत्र और वह भी योगी हो गया वह सुनकर जया : ·
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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