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________________ ३४६ जैनवालदोधकबतीके हृदय पर बड़ी मारी चोट लगी। वह पुत्रवियोगसे पगलो हो गई खाना पीना उसके लिये जहर हो गया। अहोरात्र नेत्र श्रांनुओंसे भरे रहते . इसी चिंता दुःख और आर्तध्यानसे मरकर मगधदेशके मोहलिक नामके पर्वत पर व्याघ्रीका उन्न पाया ! इसके तीन बच्चे हुये, सो वनों सहित उसी पर्वत पर रहती थी। विहार करते २ एक दिन सिद्धार्य और मुकोशज मुनिने इस पर्वत पर पाकर योग धारण किया । योग पूरा होने पर ये जर मिनार्य शहरमें जाने के लिये पर्वत से उतरने लगे तो उस समय वह व्याघ्री (जो कि पूर्व जन्मने सिद्धार्थकी स्त्री और नुकोशल की माता यो ) इन्हे खानेको दौड़ी। ये जबतक सन्यास लेकर बैठने हैं कि इतनेने उसने या दवाया और फाड़कर खाने लगी सुकोशलको खाते २ जब उसका हाय ताने लगी तो उस समय सुकोशलके हायके चिन्हों ( लावणों) पर दृष्टि जा पडो । उन्हें देखते ही उसे पूर्व जन्मकी नृति हो आई और जिल पुत्रपर वेहद प्यार था जिसके वियोग दुःखसे ही मरी थी उसी पुत्रको ता रही हूं। धिक्कार है मुझ पापिनीको ! जो अपने ही प्यारे पुत्रको मैं खा रही हूं। हाय हाय मैं मोइमें फसकर ऐसा घोर पापकर रही हूं इत्यादि अपने पापोंकी पालोचना करके वह यात्री एकदम शरीरले विरक्त हो सन्यास धारण करके शुभ भावोंसे प्राण छोड़कर सौधर्म स्वगर्ने देव हुई और वे दोनों पिता पुत्र समाधिसे शरीर बोड़कर सर्वार्थसिद्धि में गये।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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