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चतुर्थ भाग।
६३. जकडी (५) कविदासकृत ।
तुम त्रिभुवनपति हो जिया, पल अपना क्यों गमाया। तन्य सकल परहत्य दिया, विषयनिसौं मन लाया ॥ लाय मन विषयहिं निरत्ता चहृगतिमैं प्रति भमौ। जिनधर्म तजि मिथ्यात सेया, रहसि वांधे दुहकमौ ॥ संमारमें वसु सार जान्या मोह परिग्रह तुम किया । कवि दास वास कुवास छांडो तुम त्रिभुवनपति हो जिया ॥
शान कछू हिरदै धरौ जग धंदा करि जानौ। कामविषय सब परिहरी, समता घटमें पानौ ॥ प्रानि समताभाव घटमें, कुमति दूरि निवारयो । दिह गौ समकितभाव करुना. होय शुभमति सारओ। बहुत दिन भव बसत वीते, क्यों न घरकी सुधि करौ। कवि दास वास कुवास छोड़ो, ज्ञान कछु हिरदै धरौ ॥२॥
काल.बहुत भमते गए, मारग कहूं न पाया । मोहकरमठग संग लगे, नेट ज्यौं नाच नचाया ॥ नाच नट ज्यों तू नचाया, स्वांग बहुतेरे धरे । पांच पात्री छौ नायक, नाचते त्रिभुवन फिरे । जिय सकल सक्रति गंवाय अपनी, श्रानिके परहथ भए । कवि दास वास कुवास छांडौ, काल बहु भमते गए ॥३॥
१ पराये हाथमें । १ पांचों इन्द्रियां । ३ मन ।