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जैनवालबोधक
परम महासुख चाह्, ता. परसंग निवारों । अष्ट करमदल गाह, अपनी सकति संभारों ॥ जिय सकल सकति संभार अपनी, सबै सेव तेरी करें। सुर असुर नर धरणिंद खग मुनि, तोहि जपि हियरे धरें । तुम आप परका भेद जानौ, बहुरि भव नहिं श्रावहु । कवि दास बास कुवास हांड़ी, परम महासुख चाहहु ॥ ४ ॥
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६४. कार्तिकेय मुनि |
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कार्त्तिक पुरके राजा अग्निदत्तकी रानी वीरवती के कृत्तिका नामकी एक लड़की थी । वह बहुत ही सुंदरी थी । एकवार अ· ठाई के दिनोंमें उसने आठ दिनके उपवास किये। अंत के दिन वह भगवानकी पूजा करके आशका ( पुष्पमाला ) लेकर भाई और अपने पिताको उसने दी। पिता माला लेते समय उसकी दिव्य रूप राशिको देखकर उसपर श्राशक हो गया। शेषमें कामसे पीडित होने पर उसने अनेक अनी और कुछ जैन मुनियोंको एकत्र करके उनसे पूछा कि क्यों महात्मा विद्वानों ! आपलोग कृपा करके यह बतावें कि- मेरे घरमें पैदा हुये रत्नका मालिक मैं ही हो सकता हूं कि अन्य कोई ? राजाका प्रश्न पूरा होते ही सब ओरसे एकही आवाज आई कि - महाराज उस रलके तौ
१ दलन करों-करो ।