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________________ ३४६ चतुर्थ भाग। प्रापही मालिक हो सकते हैं न कि दूसरा । परंतु जैन साधुओंने राजाके प्रश्नका गहरा विचार करके उत्तर दिया कि अपने यहां उत्पन्न हुये रत्नके मालिक आप ही हैं परंतु एक कन्यारत्नको छोडकर । क्योंकि कन्या पर मालिकी आप पिताके नातेसे योग्य वरके साथ विवाहादि क्रिया कर देने आदि द्वारा कर सकते हैं। जैन साधुओंका यह हितभरा उत्तर राजाको बहुत बुरा लगा और लगना ही चाहिये क्योंकि पापियोंको हितकी वांत कदापि नहीं सुहाती · राजाने जैन मुनियोंको देश निकाला दे दिया और अन्य विद्वानोंकी सम्मतिको मानकर अपनी पुत्रीके साथ स्वयं विवाह कर लिया। कुछ दिनोंके वाद कृत्तिकाके दो संतान एक लड़का और लड़की हुई। लडके का नाम कात्तिकेय और • लड़कीका नाम घोरमती रक्खा गया। वीरमती वडी सुन्दर यी उसका विवाह रोहेड नगरके राजा क्रौंचके साथ किया । वीरमती वहीं रहकर सुखके साथ दिन विताने लगी। इधर कार्तिकेय भी चौदह वर्षका हो गया। एकदिन काति.. केय अपने साथी राजकुमारोंके साथ खेल रहा था उस दिन वे सब नानाके यहाँसे पाये हुये नाना प्रकारके अच्छे २ वस्त्र और गहने पहिरे हुये थे। पूछने पर कार्तिकेयको मालूम हुवा कि वे वस्त्राभूषण सब राजकुमारोंके नाना मामाओंके यहांसे आये हुये थे। तब उसने अपनी माले जाकर पूछा कि क्यों मा! मेरे साथी राजकुमारोंके लिये तो उनके नाना मामा अच्छे २ कपड़े गहने भेजते हैं, मेरे नाना मामा क्यों नहीं भेजते ? .अपने प्यारे बोकी ऐसी भोली बात सुनकर कृत्तिकाका हदय भर पाया --
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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