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________________ जैनवालवोधक२५. जीवके गुण । (२) २२।मतिक्षानसे जाने हुये पदार्थसे संबंध लिये हुये किसी दूसरे पदार्थके ज्ञानको श्रुतक्षान कहते हैं। जैसे-घट शब्दके चुननेके अनंतर कंबुग्रीवादि रूप घटका ज्ञान ।। २३ । ज्ञानसे पहिले दर्शन होता है, विना दर्शनके अल्पजनों के ज्ञान नहिं होता परंतु सर्वश देवके शान और दर्शन साथ २ होते हैं। २४ । नेत्रजन्य मतिज्ञानसे पहिले सामान्य प्रतिभास या अवलोकनको चतुर्दर्शन कहते हैं । २५ । चनु ( नेत्र के सिवाय अन्य इंद्रियों और मनके सम्बंधी मतिज्ञानके पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको अचतु दर्शन कहते हैं। २६ । अवधिशानसे पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको अवधि दर्शन कहते हैं। २७। केवल ज्ञानके साथ होनेवाले सामान्य अवलोकनको केवल दर्शन कहते हैं। ___ २८ । वाह्य और अभ्यंतर क्रियाक निरोधसे प्रादुर्भूत भात्मा की शुद्धि विशेषको चारित्र कहते हैं। ___२६ । हिंसा करना, चोरी करना, झूठ बोलना, मैथुन करना और परिग्रह संचय करना वाहा क्रिया कहलाती है। - ३० । योग और कषायको आभ्यंतर क्रिया कहते हैं ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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