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चतुर्थ भाग। .. २५७ विषय चाह दवदाह, जगतजन भनि दझावै । तास उपाय न भान ज्ञान धन पान वुझावै ॥८॥ मुनियोंके नाथ जिनेंद्र भगवान कहते हैं कि-जितने जीव पहिले मुक्त गये, अव जाते हैं और आगेको जायगे, सो सब जानकी ही महिमा है । पंचेंद्रियों के विषयोंकी चाह है सो दावाग्नि है सो जगतजनरूपी जंगलको जलाती है। ऐसी दावाग्निको बुझानेके लिये, शानरूपी वादलोंके सिवाय अन्य कोई.उपाय नहीं है॥८॥ .. पुण्यपापफलपाहि, हरख विलखो मत भाई। . यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै थिर पाई ॥ .. . लाख यातकी बात यहै, निश्चयः उर लामो। - तोरि सकल जगद्वंदफंद, नित प्रातम ध्याओ ॥९॥
इसके सिवाय हे भाई! पुण्य और पापका फल मिले उसमें हर्ष विषाद मत करो क्योंकि यह पुण्य पाप पुद्गलरूप कर्मकी पर; आय मात्र है सो हमेशह विनसती उपजती रहती है। संक्षेपमें लाख वातकी वात यह है कि अपने इदयमें यह निश्चय लामो कि-जगतके सव इंदफंदं तोड़कर नित्य पात्माका ही बान, करना चाहिये ॥ ६॥ :
सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि,. दृढचारित लीजै। . एक देश,अरु सकल देश, तस मेद कहीजे ॥ असहिंसाको त्याग- वृथा, थावर न संपा। .. परवरकार कठोर निंद्य, नहि वैन उचारै ॥ १० ॥