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२५८ जैनबालबोधक
जलमृतिका विन और नाहि, कछु गहै अदत्ता। निजवनिता विन सफल नारिसों, रहे विरचा ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखें ।
दशदिश गमनप्रमान ठान, तसु सीम न नाल ॥११॥ । उक्त प्रकारसे सम्यग्ज्ञानी हो जाय तव फिर दृढ़ताके साय सम्यक्चारित्रको धारण करना चाहिये । चारित्र एक देश मौर सकल देशके भेदसे दो प्रकारका है। उसमेंसे एकदेश चारित्र कहते हैं। - प्रथम तौ त्रसहिंसाको सर्वथा त्यागना और व्यर्थ स्थावर एकेंद्रिय जीवोंकी भी विराधनाका त्याग करना चाहिये। दूसरा परवध करनेवाले कठोर निंद्य वा असत्य वचन न बोलना। तीसरे जलमृत्तिकाके सिवाय विना दिया हुमा कुछ भी किसी का ग्रहण नहिं करै । चौथे-अपनी स्त्रीके सिवाय अन्य सियोंसे विरक्त रहना चाहिये । और अपनी शक्तिको विचार जहां तक बने थोडा परिग्रह राखै इस प्रकार पांच अंणुव्रतके सिवाय तीन गुण व्रत धारण करना चाहिये । उसमेसे प्रथम तौ दिशावोंमें जितनी २ दूर तक जानेका काम पड़े उतनी दूर तकका परिमाण करके उससे आने जानेका यावजीव त्याग देना सो दिग्बत है।
ताहमें फिर ग्राम गली, गृह वागवजारा । । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा ॥ काहूकी धनहानि, 'किसीकी जय हार न चित। देय न सो उपदेश होय अष वन कषति ॥ १२॥