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________________ चतुर्थ भाग । करि प्रमाद जलभूमि वृक्ष, पावक न विराधै । श्रसि धनु हल हिंसोपकरण, नहि दे जस लावे || राग द्वेष करतार कया, कबहू न सुनीजै । और हु अनरय दंड हेतु, अघ तिन्हें न कीजै ॥१३॥ २५६ उस दिग्व्रतमेंसे फिर थोड़ेसे कालकी मर्यादासे किसी ग्राम, गली घर बाजार आदि तकको मर्यादा रखकर शेषका त्याग कर रहना चाहिये इसे देशव्रत कहते हैं। तीसरे किसीकी धन हानि किसीकी हार किसीकी जय होना अपने मनसे न चाहै । इसको अपध्यान नामा अनर्थदंड कहते हैं। जिससे पाप हो ऐसे व्यापार और वनज वा खेती करनेका उपदेश नहि देना । इसको 'पापोपदेश अनर्थदंड कहते हैं । प्रमाद के विना प्रयोजन पानी 'बखेरने पृथिवी खोदने, वृक्ष काटने आग जलाने यादिका त्याग -कर देना चाहिये इसे प्रमादचर्या श्रनर्थदंड व्रत कहते हैं। तलवार, धनुष, हल आदि हिंसाके उपकरण यशके लिये मांगे हुये नहि देना इसे हिंसोपकरगादान नामा अनर्थदंडवत कहते हैं और रागद्वेष बढ़ानेवाली कथा कहानीया पुस्तक नहिं सुनना वांचना नहीं । इसे दुःश्रुतिनामा अनर्थदंड व्रत कहते हैं ॥ १३ ॥ घर र समता भाव, सदां सामायिक करिये । पर्व चतुष्टय माहि, पाप तज मोषध धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियम कर पमत निवारें । मुनिको भोजन देय, फेरि निज करहि आहारै ॥ १४ ॥ बारह व्रतके भतीचार, पनपन न लगावें ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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