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जैनपालवोधकशान ही जन्म जरा मृत्यु रोगको नष्ट करनेके लिये परमामृत है। शानके विना अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मोंमें तपकरके जितने कर्मों को काटता है उतने कर्म सम्यग्ज्ञानीके मन वचन काय वशमें होने के कारण सहजमे ही नष्ट हो जाते हैं । यह जीव मुनिव्रत धारण करके अनंतवार नव ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ परंतु पात्मज्ञानके विना लेशमात्र भी सुख नहिं पाया। इस कारण जिनंद्र भगवान द्वारा कथित तत्त्वोंका अभ्यास करके संशय विभ्रम विपर्यय इन दोषोंको छोड़कर प्रात्मशानको प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि यह मनुष्य पर्याय उत्तम कुल और जिनवाणीका सुनना व्यर्थ ही चले जायगे तो समुद्रमें डूवे हुये चिंतामणि रत्नकी तरह फिर नहि मिलेंगे॥६॥
धन समाज गज बाज, राज तौ काज न आवै । ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावे ॥ तास ज्ञानको कारण स्वपर, विवेक बखान्यों। कोटि उपाय बनाय भन्य, ताको उर मान्यो ॥७॥ धन समाज हाथी घोड़ा राज्य आदि कोई काम नहीं पाते। ज्ञान आत्माका स्वरूप है। उसकी प्राप्ति होनेपर वह निश्चलं रहता है। उस ज्ञानका कारण निजंपरका विवेक करना बताया गया है अतएव हे भव्य ! कोटि उपाय बनाकर भी उस स्वपर विवेकको प्राप्त करो।
जो पूरब शिव गये, जाहिं, अब आगे जै है। सो सब महिमा ज्ञानतणी, मुनिनाथ कहै हैं ।। ।