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________________ चतुर्थ भाग । अवधिज्ञान मनपर्यय दो हैं देश तच्छा | द्रव्यक्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा ॥ ३ ॥ सकल द्रव्यके गुन अनंत परजाय अनंता । जानहि एके काल प्रगट केवल भगवंता ॥ उस सम्यग्ज्ञानके परोक्ष प्रत्यक्ष दो भेद हैं। इंद्रिय और की सहायता से पैदा होनेवाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तौ परोक्ष हैं । और द्रव्य क्षेत्रका परिमाण लिये विशद जाननेवाले 'अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान देश प्रत्यक्ष हैं । और द्रव्यके समस्त गुण और भूत भविष्यत् वर्त्तमानकी अनंत पर्यायोंसहित युगपत् (एक साथ ) जाननेवाले केवली भगवानका केवलशान सर्वदेश प्रत्यक्ष है ॥ २५९ ज्ञान मपान न आन जगतमें सुखको कारन | इड परमामृत जन्म नरामृत रोग निवारन ||४| कोटि जन्म तप तपे ज्ञान विन कर्म भरें जे । ज्ञानीके छिन माहि. गुति, सहज टरेँ ते ॥ मुनिव्रत धार अनंतवार, ग्रीक उपजायो । यै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायो ॥ ५ ॥ a जिनवर कथिततव, अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह त्याग, प्रापणे कखि लीजै !! यह मानुप परजाय सुकुल सुनियो जिनवानी । यह विधि गये न मिलें, सुपनि ज्यों उदधि समानी ॥ -ज्ञानके समान जगतमें अन्य कोई सुख देनेवाला नहीं है।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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