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________________ 98 जैनवालबोधक ४५. छहढाला सार्थ - चौथी ढाल | --**** दोहा | सम्यक श्रद्धा धारि पुन, सेवह सम्वज्ञान । स्वपर घर्थ बहु धर्मजुन, जो प्रगटावन मान ॥ १ ॥ • उस प्रकार से सम्यग्दर्शन धारण करके फिर सम्यग्ज्ञानकी 'आराधना करो यह सम्यग्ज्ञान अनेक धर्मयुक्त निजपर पदार्थोको - प्रकट करने के लिये सूर्यसमान है ॥ १ ॥ शेलाछंद २१ मात्रा | सम्यक साथै ज्ञान होय पै भिन्न अराधो । लक्षण श्रद्धा ज्ञान दुहूमें भेद प्रबाधो ॥ सम्यक कारमा जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत होते हू प्रकाश दीपकतें होई ॥ २ ॥ यद्यपि सम्यग्दर्शनके साथ ही ज्ञान होता है तथापि उसे जुदा ही प्राराधन (धारण ) करना चाहिये क्योंकि दोनोंके लक्षणमें श्रद्धान और जानना इस प्रकार बाधारहित भेद है । सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) तौ कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है । जैसे - दीपक और प्रकाश साथ २ ही उत्पन्न होते हैं तथापि दीपक - कारण है और प्रकाश कार्य है ॥ तास भेद दो हैं परोक्ष परतछि तिन माहीं । गति श्रुत दोय परोक्ष अक्ष मनतें उपजाहीं ॥
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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