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चतुर्थ भाग। ।
सूर्योदयके समय रानीने मुनिराजकी प्रदक्षिणा करके और मस्तक ना करके कहा है संसारसमुद्रसे पार उतारनेवाले भगवन् ! है शान्तिमूर्ते ! उपसर्ग दूर हो गया है, हम लोगोंपर अनुग्रह कीजिये । यह सुनकर मुनिराज ध्यानासन छोड़के बैंड गये और नमस्कारके उत्तर में दोनोंकी ओर हाथ उठाकर बोले, तुम दोनों की धर्मवृद्धि होवे । श्रेणिक राजाके हृदयपर इस आशीवादशी बड़ा चोट लगी । वेसोचने लगे,अहो ! मुनिराजके कैसी अद्वितीय क्षमा है, जो मुझ अपराधीमें और परम भक्तिनीमें कुछ, भी भेद नहीं समझते । और में कैसा चाण्डाल ई, जिसने ऐसे. परम पुरुषके गले में सांप डालकर इतना कष्ट पहुंचाया। ऐसा विचार करके वह आत्मघात करनेको तैयार हो गया । परन्तु मानी मुनिने उसके हृदयकी यातको जानके कहा-राजन् ! तुझे पेसा बुरा कर्म करनेको उद्यत नहीं होना चाहिये । मुनिकी ऐसी अपूर्व शक्ति देखकर श्रेणिकका हृदय पलट गया। उसने उसी दिनसे जैनधर्म पालनेकी ठानली और सुखसे राज्य करने लगा। वादको इसके एक कुणक नामका पुत्र उत्पन्न हुआ,राज्य पाते ही श्रेणिकको कैद करके अतिशय दुःख दिया । एक दिन कुणक. अपने इल पापका पश्चात्ताप करता दुआ राजा श्रेणिककों बंदी.. गृहसे मुक्त करने के लिये गया था, परन्तु श्रेणिकको आयु पूर्ण होगई थी, वह लोहपिंजरमें मरा हुआ मिला जिससे कुणकको. वडा पश्चाताप हुआ।
इतिहासों में तथा बौद्ध अन्धोंमें राजा श्रेणिक (शिशुनागवशीय) विम्बसारके नामसे और उसका पुत्र कुणक प्रजात-- शधुके नामसे प्रसिद्ध है। प्रजातशत्रु वौदधर्मका उपासक था।