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चतुर्थ भाग। गेही, पै गृहमें न रचै ज्यों, जल्में भिन्न कमल है। ‘नगर नारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अपल है ।। १५ ।।
जो सुधी उपर्युक्त पच्चीस दोप और पाठ अंगसहित सम्यगदर्शनसे अपनेको शोभित करते हैं ये यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे कुछ भी संयम धारण नहिं करते तो भी उनको इंद्रगण नमस्कार करते हैं। यद्यपि वे वरमें रहनेवाले गृहस्थी है परंतु घरने मन (लीन ) नहिं होते जिस प्रकार कमल जल को नहिं छूता उसी प्रकार घरके कार्याले उदासीन रहते हैं। घर में उनकी जो प्रीति है वह वेश्याकी तरह अस्थिर प्रीति है। अथवा कीचड़में पड़े हुये सोनेकी तरह निर्मल ही रहते हैं ॥१५॥ प्रथम नरक चिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन पंड नारी । । -थार विकल त्रय पशु नहि, उपजत सम्यक धारी। -तीन लोक तिह काल मांहि नहि, दर्शनसो सुखकारी। सकल घरमको मूळ यही इस, विन करणी दुखकारी ॥१६॥ मोखमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान चरित्रा॥ । सम्यकता न लई सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। ... दौल समझ सुन चेत सयाने, काल च्या मत खोवे । यह नर थव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक नहि होवे ॥
सम्यकधारी जीव-पहिले नरक विना शेपं छह नरकोंमें, ज्योतिषी भवनवाली और व्यंतरदेवोंमें, स्त्री पर्यायमें, स्थावर एफेंद्रियोंमें तथा द्वीन्द्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिंद्रिय इन विकलत्रय जीवोंमें, और पशुओंमें पैदा नहीं होता। सम्यक्त्वके समान