SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनवालवोधक : २२६ 'धर्मसे डिगते हुये निजपरको स्थिर कर देना सो स्थितिकरण अंग है ६, धर्मालाओं से गौ वछरेकीसी प्रोति करना सां वात्सल्य अंग है, ७, और जिस प्रकार घनै उस प्रकार से जैनधर्मका महत्त्व ( माहात्म्य) प्रगट करना सो प्रभावना भंग है । ये सम्यक्त्वके ठग हैं इनसे उल्टे ८ शंकादि दोष हैं। इन दोषोंमें हमेशद दूर रहना चाहिये । प्रव आठ मद कहते हैं-पिता राजा या बड़ा श्रहदेवाला प्रतिष्ठित हो तौ उसका गर्व करना सो कुल मद है १, इसी प्रकार मामा नानाके अधिकारका गर्व करना सो जातिमद है २, अपने रूपका घमंड करना सो रूपमद है ३. अपनी विद्या वा पंडिताईका मद करना सो ज्ञान मद है ४, धनका घमंड करना सो धनमद है ५, वलका घमंड करना सो यलमद हैं ६, अपने तप करने का घमंड करना सो तप मद है ७, अपनी प्रभुः ताका मद करना प्रभुता मद है ८, ये ८ मद भी दोष हैं ये सम्यवको दूपित करते हैं इस कारण इनको भी छोड़ देना चाहिये इसके सिवाय कुगुरु कुदेव कुधर्म तथा इन तीनोंको सेवन करने वाले ये छह अनायतन हैं । इन छहोंकी प्रशंसा करना वा मानना सो छह दोष हैं। तथा कुगुरु कुदेव कुशास्त्रोंको नमस्कार करना सो तीन मूढता है । इस प्रकार आठ शंकादि दोप, प्राठमद, छह अनायतन और तीन मूढता इन सबको मिला कर पच्चीस दोष : होते हैं ॥ दोपरहित गुणसहित सुधी जे, सम्पक दरश सर्जे हैं। वरित मोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जने हैं ॥ 7 ;
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy