SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ भाग । २२५ और प्रास्तिक्य गुणोंको चित्तमें धारण करो । अब प्राठ प्रंग और २५ दोषोंको संक्षेपले कहा जाता है क्योंकि दोष गुणोंको विना जाने त्याग वा ग्रहण करना नहीं हो सक्ता ॥ '; जिन वचमें शंका न धारि नृप, भव सुख वांळा भांने । मुनि तन मलिन न देख बिनावें, तव कुतत्र पिछाने | निजगुन घर पर अवगुन ढांके, वा निजधर्म वढावे | - कामादिककर नृपते चिगते, निजपरकों सु दृढावै ॥ १२ ॥ धर्मीसों गउवच्छ प्रीतिसम, कर जिनधर्म दिपावें । इन गुन विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावे ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय, न तौ मद ठाने । मदन रूपको मदन ज्ञानको, धन वलको मद माने ॥१३॥ तरको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जाने । पद धारे तो ये ही दोप वसु, समकितको मल ठाने ॥ कुगुरु कुदेव कुनृप सेवककी, नहि प्रशंस उचरे है । जिन मुनि जिन श्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है | जिन भगवान के वचनोंमें संशय नहि करना सो निःशंकित अंग है १, सांसारिक सुखोंकी बांदा न करना सो निःकांक्षित अंग है २. मुनि वा अन्य सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के शरीरको मैला देखकर घृणा नहिं करना सो निर्विचिकित्सित अंग है। ३, खोटे खरे तत्वों की पहचानमें मूढ़ता ( निर्विचारता ) नं रखना सो अमूद दृष्टि अंग है ४, अपने गुण और परके दोष ढकै या अपना धर्म बढ़ावै सो उपगूहन अंग है, ५, कामादिकके कारण १५
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy