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चतुर्थ भाग ।
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और प्रास्तिक्य गुणोंको चित्तमें धारण करो । अब प्राठ प्रंग और २५ दोषोंको संक्षेपले कहा जाता है क्योंकि दोष गुणोंको विना जाने त्याग वा ग्रहण करना नहीं हो सक्ता ॥
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जिन वचमें शंका न धारि नृप, भव सुख वांळा भांने । मुनि तन मलिन न देख बिनावें, तव कुतत्र पिछाने | निजगुन घर पर अवगुन ढांके, वा निजधर्म वढावे | - कामादिककर नृपते चिगते, निजपरकों सु दृढावै ॥ १२ ॥ धर्मीसों गउवच्छ प्रीतिसम, कर जिनधर्म दिपावें । इन गुन विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावे ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय, न तौ मद ठाने । मदन रूपको मदन ज्ञानको, धन वलको मद माने ॥१३॥ तरको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जाने । पद धारे तो ये ही दोप वसु, समकितको मल ठाने ॥ कुगुरु कुदेव कुनृप सेवककी, नहि प्रशंस उचरे है । जिन मुनि जिन श्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है |
जिन भगवान के वचनोंमें संशय नहि करना सो निःशंकित अंग है १, सांसारिक सुखोंकी बांदा न करना सो निःकांक्षित अंग है २. मुनि वा अन्य सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के शरीरको मैला देखकर घृणा नहिं करना सो निर्विचिकित्सित अंग है। ३, खोटे खरे तत्वों की पहचानमें मूढ़ता ( निर्विचारता ) नं रखना सो अमूद दृष्टि अंग है ४, अपने गुण और परके दोष ढकै या अपना धर्म बढ़ावै सो उपगूहन अंग है, ५, कामादिकके कारण
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