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जैनषालवोधककालाणु लोकाकाशके एक एकप्रदेशमें रत्नोंकी राशिके माफक भरा है और घड़ी पल मिनट वगेरहको व्यवहार काल कहते है। __ मन वचन काय इन तीनोंका चलना सो योग है। इन्हीं योगों से कर्मोका पाना सो आस्त्रव है और मिथ्यात्व, अविरत (बत न पालना) क्रोधादि कषाय और प्रमादसहित श्रात्माके भाव है इन्हीं के द्वारा आत्माके साथ कर्मोंका एकमेक होनासो बंधहै। ये भाव ही दुःखके (बंधके ) कारण है इस कारण इनको छोड़ कर कर्मवंधसे बचना चाहिये । शम दमादिसे अर्थात् समताभाव
और इन्द्रियोंके दमनसे आस्रव (आते हुये कर्म ) रुकते हैं इसीको संवर तत्व कहते हैं । तपके प्रभावसे कर्मोका एक देश मडनासो निर्जरा है इस कारण तपका आचरण करना चाहिये। समस्त कर्मोंसे रहित होना सो स्थिर सुखकारी मोक्ष तत्व है। इस प्रकार सात तत्त्वोंका श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यक्त्य है। इसके सिवाय सत्यार्थ जिनेंद्र देव, चौवीस परिग्रहरहित गुरुः और दयामय भर्मका श्रद्धान करना भी व्यवहार सम्यक्त्व है सो आठ अंगसहित यह सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन ) धारण करना चाहिये। वसुमद. दारि निवारि त्रिसठता, षट. अनायतन, त्यागो। . शकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेप हु कहिये। विन जाने दोष गुननको, कैसे तजिये गहिये ॥ ११॥
पाठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और पाठ शंकादिः दोष इस प्रकार २५ दोषोंको दूर करके प्रशम संवेग अनुकंपा ।'