SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૧૩ चतुर्थ भाग | सकल द्रव्यको वास जानें, सो आकाश पिछानो । नियत बरतना निस दिन सो, व्यवहार काल परवानो ॥ -यों अजीव व आसव सुनिये, मन वच काय त्रियोगा । मिथ्या अविरत अरु कषाय पर, पाद सहित उपयोगा ॥८॥ ये ही आतमके दुख कारण, तातें इनको तजिये । जीव प्रदेश बंधे विधिसों, सो बंधन कबहु न सज़िय | शमदमसौं जो कर्म न भावै सो संवर बादरिये । तपवळ विधिकरण निरजरा ताहि सदा आचरिये ॥ ९ ॥ सकळ कर्म रहित अवस्था, सो शिवतियसुखकारी । इहविधि जो सरधा तच्चनकी सो समकित व्योहारी ॥ देव जिनेंद्र गुरु परिग्रह विन, धर्म दयाजुत सारो । येहु मान समतिको कारन, अष्ट अंगजुत वारो ॥ १० ॥ जिसमें चेतनता नहीं सो प्रजीव है । श्रजीवके पुद्गल धर्म "अधर्म आकाश और कालके मेदसे पांच भेद हैं । पहिला भेद - पुद्गलमें पांच रंग हैं पांच रस ( स्वाद ) दोय गंध और मठ प्रकारका स्पर्श है इस प्रकार सब मिलकर वीस गुण हैं । जीव पुद्गलको चलने में सहयता करे उसे धर्म द्रव्य और ठहरने में सहाय करे उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । ये दोनों द्रव्य अरूपी है। आकाश द्रव्य दो प्रकारका है जिसमें समस्त द्रव्योंका -वास हो उसे लोकाकाश कहते हैं और लोकसे बाहर अलोका • काश है । काल द्रव्य भी दो प्रकारका है सास्त इव्यों का परि-वर्त्तन करे सो तौ निश्चय काल है । इस द्रव्यका एक एक
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy