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________________ २२२ जनबालबोधकविचारमें मूढ़ वहिरात्मा है और अंतरात्मा उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका है। इन तीनोंमसे बाहा अभ्यंतर दो.प्रकार के परिग्रहरहित शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी मुनि तौ उत्तम अंतरात्मा हैं । और जो देशवती गृहस्थ हैं वे मध्यम अंतरात्मा और अव्रत सम्यग्दृष्टी जघन्य अंतरात्मा हैं। ये तीनों ही अंतरात्मा जीव मोक्षमार्गमें चलनेवाले हैं | ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल,-वजित सिद्ध महता। .ते हैं निकल अमल परमातम, भोग शर्म अनंता॥ बहिरातमता हेय जानि तजि. अंतर आतम हजै ॥ परमातमको ध्याय निरंतर, जो नित आनंद पूजै ॥६॥ परमात्मा सकल निकल भेदसे दो प्रकारका है। घातिया -कर्मोको नष्ट करके-लोक प्रलोकको देखनेवाले सर्वज्ञ श्ररहंत भगवान तौ सकल परमात्मा हैं ! और ज्ञानमय शरीरवाले तीन कर्म मल (द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म) रहित सिद्ध भगवान निकल परमात्मा है जो कि अनंत सुखोंके भोक्ता है। हे भाई! बहिरात्मापनको (मिथ्यात्वको) हेय (त्यागने योग्य ) जान कर छोड़ दे और अंतरात्मा होकर परमात्माका नित्य ध्यान कर. जिससे तुझे अविनाशी प्रानंदकी प्राप्ति हो ॥ ६ ॥ चेतनता विन सो अजीव है पंच भेद ताके हैं। पद्ल पंच वरन रस पन गंध, दुफरस वसु जाके हैं ।। जिय पुदलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी। , .तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विनमूर्ति निरूपी ॥७॥
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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