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________________ चतुर्थ भाग ! रक्षाके लिये चे सव एक मयूरके पांखोंकी बड़ी कोमल पीछी रखते हैं सो चलते उठते बैठते समय उस पीसीसे जीवोंको हटा कर साफ जमीन पर चलते बैठते उठते हैं । उनके हाथमें एक लकड़ीका कमंडलु होता है उसमें शौचादि क्रियाके लिये जल रहता है। वे भिक्षा लिये श्रावकोंके घर जाते जरूर हैं परंतु मांगकर नहिं खाते कोई नवधा भक्तिपूर्वक प्रासुक आहार देता है तो हाथमें ही लेकर सोलह प्राससे अधिक नहिं खाते। वहींपर प्रत्येक ग्रासके साथ एक एक चुलु पानी पीते जाते हैं। फिर कभी पानी नहिं पोते । यदि कोई भक्तिपूर्वक श्राहारके लिये नहि तुलाता है तो फिरकर वनमें चले आते हैं इसी प्रकार पंद्रह २ महीनेके उपवास करजाते हैं । वेटा ! मैं उनके प्राचार विचारकी बाते कहां तक समझाऊं । ससारमें सच्चे साधु एक मात्र वेही होते हैं। अन्य नहीं। ___ अपनी माताके द्वारा जैन साधुओं की प्रशंसा सुनकर कार्तिकायकी उनपर बडी श्रद्धा हो गई। उसे अपने पिताके अनुचित कार्यसे विराग तौ पहिले ही हो गया था माताके इसप्रकार समझानेसे उसको उड जम गई । वह उसी समय माया ममता छोड धरसे निकल कर जैन मुनियोंके स्थान तपोवनमें पहुंच गया। मुनियोंका संग देखकर उसे बडी प्रसन्नता हुई। उसने वडी भक्तिसे उन सब साधुओंको हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और मुनिदोनाके लिये प्रार्थना की। संघके स्वामी आचार्य महाराजने उसे दीक्षा देकर मुनि बना लिया। कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि स. अम्त शास्त्रोंको पढकर विद्वान हो गये।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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