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________________ चतुर्थ भाग ३०५ आनंद वा सुख न इन्द्रको मिलता है न नागेंद्रको या चकच या अहमिंद्रको मिलता है । उसी वक्त ही शुक्लध्यानरूपी अग्नि चार घातिया कर्मरूपी वनको भस्म करके केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं और उसके द्वारा तीनोंकाल की वार्ताको जानकर भव्य पुरुषों को मोक्षमार्गका उपदेश करते हैं ॥ ११ ॥ पुनि घात शेष अधातिविधि, छिनमाहि श्रष्टपभू बसें । वसु कर्म विनसे सुगुनवसु, सम्यक्त्व आदिक सब उसें ॥ संसार खार व्यपार पारावार, तिर तीरहिं गये । अविकार कल रूप शुधचिद्रूप अविनाशी भये ॥१२॥ निनमाहि लोकअलोक गुन, परजाय प्रतिबिंचित यये । रहि हैं अनंतानंत गल, यथा तथा शिव पर नये । धन धन्य हैं जे जीव नर भर पाय यह कारज किया। तिनही अनादी भ्रमण पंचमकार तजिवर सुख लिया ||१३|| तत्पश्चात् फिर आयु नाम गोत्र और अंतराय इन चारों अघातिया कर्मोंको दिन भर में नष्ट करके मोक्ष चले जाते है । आठ कर्मोंका नाश होने से उनमें सम्यक्त्वादि आठ गुगा प्रगट हो जाते हैं । मोह कर्मके नष्ट होने से तो सम्यक्त्व, मानावरणी कर्मके नाश होनेसे अनंतज्ञान, दर्शनावरणीय कर्मके नाश हानेसे अनंतदर्शन. अंतरायकर्मके नाश होने से अनंतवीर्य, प्रायुकर्मके नाश होने से श्रवगाहनत्वगुण, नामकर्मके नष्ट होनेसे सूक्ष्मत्व गुण, गोत्रकर्मके नष्ट होने से अगुरु लघुत्य और बेदनीय कर्मके २०
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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