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________________ ३०४ जैनवालबोधकही भेद रहता है। क्योंकि इस अवस्थामें चेतन भाव ही तो कर्म होता है चेतन ही कर्ता है और चेतना ही क्रिया है ये तीनों अभिन्न अखिन शुद्धोपयोगकी निश्चल दशा प्रगटी है । इस अवस्थामें दर्शन मान चारित्र तीन प्रकार का होते हुये भी एक ही हो जाते हैं । परमान नय निक्षेपको न उदोत अनुभवमैं दिख । हग वान सुख बलमय सदा नहीं पान भाव जु मोविखै ।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अरु तसु फलनित । चित पिंडचंड असंच सुगुन करंडच्युत पुनि कलनितें ॥१०॥ इस प्रकार अनुभव दशामें (ध्यान अवस्थामें ) प्रमाण नय निक्षेपका प्रकाश भी अनुभवमें नहिं आता किंतु उस समय प्रा. मा विचारता है कि मैं अनन्त दर्शन शान सुख वीर्यरूप मुझमें दूसरा कोई भाव नहीं है, मैं ही साध्य हूं, मैं ही साधक हूं, तथा मैं ही कर्म व कर्मके फलसे रहित हूं । मैं चैतन्यका पिंड प्रचंड अखंड उत्सम गुणोंका पिटाराई॥१०॥ यों चित्य निजमें थिरमये तिन प्रकय जो भानंद लह्यो । सो इन्द्र नागनरेंद्र वा अहमिन्द्रक नाही करो। तब ही शुकळध्यानाग्निकरि संधातिविधिकाननदयो । .... सब लखौकेवल ज्ञान करि, भविलोकको शिवमगको ११. , ' इस प्रकार विचार कर जब मुनिमहाराज आत्मध्यानमें लीनः हो जाते है तब उन्हें. जो अकथनीय: (सुख ) होता है वैसा
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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