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चतुर्थ भाग ।
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रत्नत्रयका पालन करते हैं । विहार कभी तो अकेले ही करते -कभी मुनियोंके साथमें करते हैं । सांसारिक सुखको कभी नाहते नहीं इस प्रकार मुनिका सकल चारित्र ( व्यवहार चरित्र ) afia किया गया | अब निश्चय चारित्रको (स्वरूपाचरण - रित्रको ) कहते हैं जिसके अपनी ज्ञानादि संपत्ति प्रगट होने मे 'परवस्तु मैं समस्त प्रकारकी प्रवृत्ति मिट जाती है ॥ ७ ॥ जिन परमपॅनी सुबुधिनी, डारि अन्तर भेदिया । चरणादि अरु रागादिने, निज मावको त्याग किया || निजमाहि निजके हेत निजकर, भापको आपे गयो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञनाशेय-मकार कछु भेद न रह्यां ॥ ८ ॥ जहूँ ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प व भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहां ॥
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तीनों अभिन्न अखिन्न शुघ उपयोगकी निश्चल दशा | -अंगटी जहां हग ज्ञान व्रत ये तीनधा एकैलशा ॥ ९ ॥
मुनिमहाराजने जव परम पैनी सुबुद्धिरूपी नोंके द्वारा अपने अंतरंगका भेड़ किया तो व रस गंधादि २० गुण व रागादि भावोंसे अपनेको न्यारा कर लिया तब अपने में दो भएने लिये अपने द्वारा अपने आत्माको आप ही ग्रहण करते हैं। तब गुण और गुणी; ज्ञान ज्ञाता और मेयमें कुछ भी भेद नहिं रहता । श्रात्मध्यान अवस्थामें ध्यान ध्याता और ध्येयका कुछ भी भेद या विकल्प नहि रहता है और न वचनसे जुदा २ कहनेका