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________________ ३०२ .* जैनवालबोधक. इनके सिवाय मुनिमहाराज त्रिकाल सामायिक करते हैं भग'चीनको स्तुति बन्दना करते हैं स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायो. 'त्सर्ग करते हैं तथा स्नान करना, दन्त धावन नहीं करके नन मुद्रा धारण करते हुये पिछली रातमें थोडोसो देर एकही करवट " शयन करते हैं ॥५॥ इक बार दिनमें लें अहार, खडे अल्म निज पानमैं । . कचलोंच करत न डरत परिसह,-सों लगे निज ध्यानमैं । अरि मित्र पहल मसान कंचन, काच निंदन थुति करन । अर्घावतारन असिपहारन, में सदा समता धरन ॥६॥ तथा मुनिगण दिनमें एफवार खड़े होकर हाथमें ही श्राहार करते हैं । वालोंको हाथसे उपाडते (केशलोंच करते ) हैं। परिसहोंसे न डरकर निजध्यानमें लगे रहते हैं। इस प्रकार पाँच . महाव्रत,पांच समिति पांचों इन्द्रियोंका विजय छह आवश्यक और नग्नता प्रादि सात, कुल अठाईस मूल गुण पालन करते हैं। इनके सिवाय शत्रु, मित्र, महल, मसान, सोना, काच, निंदा, स्तुति, पूजा करना तलवारसे मारने आदिमें समता रखते हैं । तप तपैं द्वादस, धरै वृष दक्ष, रतनत्रय सेवे सदा। . . मुनिसायमें वा एक विचरें, चहैं नहिं भव सुख कदा । -यो है सकल संजम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।. . 'जिस होत प्रगटै प्रापनी निधि, मिटै परकी प्रवृति सर्व ॥७॥ तथा मुनि महाराज बारह प्रकारके तप दश प्रकारके धर्म वां
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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