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नवालवांधकजीतकर भगा दिया और राजा जनकको निर्भय कर दिया। इसी • उपकारसे प्रसन्न होकर जनकने श्रीरामचंद्रको सीता व्याह देने
का विचार पक्का करके दशरथ वा रामको प्रार्थना की और इन्होंने भी यह संबंध स्वीकार कर लिया। नारदजी, रामचंद्रजी को सीता देनेकी है, सुनकर सीताको देखनेके लिये जनकके यहां पाये। इनको परम शील व्रतके धारी होनेसे सब राजाओं के यहां रणवासमें जानेकी छुट्टी थी सो ये जनकके रणवासमें गये उस समय सीता दर्पणमें मुख देख रही थी सो नारदजीकी जटा पा दादीकी छाया दर्पणमें पड़नेसे भय चकित हो मातासे पुकारने जगी-हाय माता!कौन था गया । सो डरके मारे भीतर महलमें चली गई नारदजी भी जाने लगे तो पहरेदार खोजेने रोक दिया और दुसरे पहरेदार-'कौन है ? कौन है ? पकड़ लो' इत्यादि कह कर नारदजीको पकडने लगे परंतु नारदजी के पास प्राकाशगामिनी ऋद्धि थी सो वे तुरंत ही आकाश मार्गले चल दिये। सीताको एक दृष्टि देख पाये थे. सो अपना अपमान समझ उसपर बड़ा कोप किया और किसी न किसी प्रकार इसे कष्टमें डालना चाहिये ऐसा विचारकर सीताका चित्रपट लिखकर रथनूपुर गया सो भामंडल बागमें बैठा था उसके सामने वह चित्रपट डाल दिया। देखते ही वह मोहित हो गया और इसके व्याहे बिना कुमारका जीना मुसकिल है यह जानकर चंद्रगति विद्याधरने मंत्रीसे मंत्र करके जनकको लाने के लिये एक विद्याधरको भेजा। वह विद्याधर अपनी विद्यासे मायामयी घोड़ा बनाकर जनकको घोडेपर बिठाकर उड़ा लाया और रयनपुरके घनमें एक जिनमः ।