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चतुर्य भाग। दिरके पास छोड़ दिया । जनक महाराज प्रसन्न होकर जिनमंदिर में गये, दर्शन किया चंद्रगतिने भी खबर पाकर तुरंत ही ज़िनमंदिर में श्रायकर भावसहित पूजन स्तुति की । फिर जनकले मिलकर प्रसन्न होकर बोला कि.तुम अपनी पुत्री सीता हमारे पुत्र भामंडलको व्याह दो ।जनकने कहा कि-उसको तो मैंने दशरथके पुत्र रामचंद्रको देना स्वीकार कर लिया है क्योंकि उन्होंने म्लेच्छराजाको हराकर मेरे राज्यकी रक्षा की ।चंद्रगतिने बहुत समझाया पर जनकने एक न मानी रामचंद्र लक्ष्मणके पराक्रमकी प्रशंसा ही करता रहा। तव चंद्रगतिके मंत्रियोंने कहा कि हमारे यहां वज्रावर्त और सागगवत दो धनुष है सो रामचंद्र लक्ष्मण इन्हें चढ़ा सके तब तो सीता रामचंद्रको व्याह देना अगर नहिं चढ़ा सकें तो हम बलात्कार' सीताको लाकर भामंडलको व्याह देंगे। जनकने यह बात स्वीकार कर ली तव अनेक विद्याधर सुभट दोनों धनुषोंको लेकर मिथिलापुरी आये और नगरके बाहर एक श्रायुधशाला बनाकर वहां दोनों धनुप रख दिये। - महाराज जनकने श्रीरामचंद्र लक्ष्मण आदि समस्त देशोंके राजा और राजकुमारोंको निमंत्रण देकर बुलाया और स्वयंवर मंडप रचा। जबसब देशोंके राजा-आ गये तव सीताको वरमाला देकर कहा गया कि हे पुत्री!जो वीर इन दो धनुषोंको चढा सके उसीके गक्षेमें वरमाला डालना । सो उन धनुषों की अनेक देव रक्षा करते.थे और उनमें से अग्निकी ज्वाला निकलती थी। तब
और सब राजा तो उन्हें देखते ही इताशं होगये परंतु रामचन्द्रजी