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________________ जैनवालवोधकप्रात उठ जागत हैं स्वारथ पिछानिके । कागदको लेखत है केई नख पेखत हैं, केई कृपि देखत हैं, अपनी प्रवानिक ! एक सेर नाज काज अपनों स्वरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ २॥ केई नट कला खेलै केई पटकला बेलै, . केई घट कला मेलै श्राप वैद्य मानिक । केई नाचि नाचि पावें केई चित्रको बनावें, केई देश देश धावें दीनता पक्षानिकै । मूरखको पास चहै नीचनकी सेवा है, चौरनके संग रहै लोक लाज मानिके । एक सेर नाज काज श्रापनो स्वरूप त्याज, डोलत है लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ ३ ॥ केई सीसको कटावै केई सीस बोझ लावै, केई भूप द्वार जावें चाकरी निदानकै । केई हरी तोरत हैं पाहनको फोरत हैं, केई अंग जोरत हैं हुनर विनानकै । केई जीव घात करै केई छंदकों उचरें, नाना विध पेट भरै, इन्हे श्रादि गनिके। एक सेर नाज काज प्रापनी स्वरूप त्याज, . डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिकै ॥ ४ ॥ १ खेतीकी । २ चाकरी आशा करके । ३ विज्ञान ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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