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चतुर्थ भाग ।
प्राणीवधमाहिं तैसे धर्मकी निसानी नाहि,
याही वनारसी विवेक मन आनिये ॥ ३ ॥ अर्थ-अग्निमें कमल पैदा होते जैसे नहिं दीखते, सूरज के अंत होनेसे जैसें दिन नहिं माना जाता, सर्पके मुखसे कभी अमृत पैदा नहिं हो सकता, कालकूट विष खानेसे किसीका जीवन हो गया नहीं जाना गया, तथा कलह करनेसे जैसे किसी को सुयश मिला नहिं सुना गया, और शरीर में रसांस ( सूजन ) बढ़ने से किसीका रोग नाश हुवा जैसें नहि कहा जा सकता उसी प्रकार प्राणीवध ( जीवहिंसा ) में धर्मका नाम निशान भी नहिं हो सकता इसकारण मनमें विवेक लाकर पशुहिंसासे विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३ ॥
सवैया ३१ मात्रा |
दीग्घ आयु नाम कुल उत्तम, गुण संपति आनंद निवास ! उन्नति विभत्र सुगम भवसागर, तीनभवन महिमा परकास ॥ भुजबलवंत नंतरूप छवि, रोग रहित नित भोग विलास । जिनके चित्त दयाल तिन्होंके, सब सुख होंय चनार सिदास ॥४॥
अर्थ- जिनके चित्तमें दया है अर्थात् जो दयालु हैं उनको दीर्घायु कुल उत्तम गुण संपत्ति, ध्यानंदका निवास, विभवकी उन्नति, भवसागर से तरना सुगम, तीन भुवनमें महिमाका प्रकाश होना, भुजामें बल, सुंदर रूप, रोग रहित शरीर, नित्य नये भोग विलास आदि समस्त प्रकारके सुख होते हैं ॥ ४ ॥ .
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