________________
चतुर्थ भाग ।
१४६
तौ रावण के विमानके पास आया। सीताको विलाप करती बैठी देखकर क्रोध से रावणको कहा- हे पापिष्ठ दुष्ट विद्याधर ! ऐसा अपराध करके कहां जायगा ? यह भामंडलकी बहिन श्रीरामदेव की रानी है । मैं भामंडलका सेवक हूं। हे दुर्बुद्धि ! जीना चाहता है तो इसे छोड़ दे । तव रावणने रत्नजटीसे युद्ध करना उचित न समझ उसकी विद्यायें छीनकर जमीनपर पटक दिया और सीताको ले जाकर अपने देवरमण नामक उपवनमें ( वाग में रखकर अपने महलमें गया। रास्तेमें सोताको बहुत कुछ समझाया परंतु सीताने मुहतोड़ जबाव दिया । सीता जबतक रामचंद्र के सुख समाचार नहीं मिले तवतक यनजलका त्याग कर मौन से बैठी । इधर रावण महलमें गया। चंद्रनखा पति पुत्रके शोकमें कंदन कर रही थी। उसे सुन मंदोदरीके पास गया तो उसने अतिशय उदासीन देख उपदेश देकर कहा कि-खरदूषण के मरनेका वीर पुरुपको इतना शोक करना उचित नहीं । रावणने कहा- मुझे उसका शोक नहीं है। मेरे प्राणनाशकी शंका हो गई है। मैं एक अद्वितीय सुंदर सोता नामकी स्त्रीको लाया हूं यदि वह न इच्छेगी तो मैं अवश्य मर जाऊंगा । मंदोदरीने कहाबलात्कार क्यों नहिं करते ? तब रावणने कहा कि-जो स्त्री मुझे न चाहेगी उसे मैंने बलात्कार न करनेकी मुनिके पास प्रतिशा की थी सो मेरा जीना चाहती हो तो उसे जाकर प्रसन्न करो । तब मंदोदरी यादि अठारह हजार रानियोंने देवरमण वनमें जाकर बहुत कुछ समझाया। सीताने एक न सुनी। फिर रावण धव कर आया, उसी समय खरदूषण के शोकशमनार्थ विभीषण