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जैनवालबोधक
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आपके सेवक हैं जो कार्य हो उसकी प्राज्ञा दें । तब लक्ष्मणने कहा कि हे मित्र ! किसी दुराचारीने छन मेरे प्रभुकी स्त्री हरली है उसके विना शोकके मारे ये प्राण छोड़ देंगे तो मैं भी प्रग्निमें प्रवेश करूंगा इनके प्राणोंके श्राधार ही मेरे प्राण हैं । यह तू निश्चय जान । इसलिये जो उचित समझे सो कर : तव विराधितने सुनते ही अपने मंत्री आदिको श्राज्ञा दी कि - प्रभुकी स्त्री जहां हो, खोजकर पता लावो परंतु सबके सब चारों तरफ दूर २ तक देख प्राये, कहीं भी पता नहीं लगा । तब रामचंद्र बड़े दुःखित हुये । विराधितने कहा- नाथ ! आप इतनी चिंता करके अधीर न हों, प्राप पाताल लंकामें चलिये वहां बैठकर विशेष प्रबंध किया जायगा और शीघ्र ही जनकसुताको लाकर आपके सम्मुख हाजिर करूंगा यहां वनमें विशेष भय है, कारण खरदूपणके मरने की खबर सुनकर रावण, सुग्रीव हनुमान यादि मिलकर प्रावेंगे। पाताल लंका शत्रुले अगम्य है, वहां गये विना कोई उपाय होना सम्भव है । तब सबने रथ में बैठकर पाताल लंकामें प्रवेश किया । परंतु खरदूषण चंद्रनखाका दूसरा पुत्र सुन्दर नगर के बाहर इनसे लड़नेको आमा सो उसे हराकर जाना पड़ा । सुन्दर और चंद्रनखा दोनों परिवार सहित लंकाको चले गये । पाताल लंकामें रामचंद्रजीने समस्त चैत्यालयों व मंदिरों में बड़े विनय भक्ति से पूजा स्तुति करके चित्तको कुछ शांत किया।
इधर रावण - सीताको विमानमें विठायेलिये जाता था। सीता हाय राम ! हाय लक्ष्मण ! कहकर रोती जाती थी सो रोने की आवाज भामंडल के सेवक अर्कजदीके पुत्र रत्नजटीने सुनी