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चतुर्थ भाग।
१४७ 'आये १ रामचन्द्र ने कहा-मैं तेरा सिंहनाद सुनकर आया हूं। लक्ष्मणने कहा-मैंने सिंहनाद नहि किया किसीने धोका दिया होगा : आप शीघ्र ही वापिस जाइये । मैं शत्रुको जीतकर पाता हूं। राम तुरत ही लौटकर स्थानपर आये तो सीताको न देखकर विह्वल हो ढूंढ़ने लगे। जब सीता न मिली तो और भी अधीर हो पागलसे हो गये ! वृक्ष नदो श्रादिसे सीताका पता 'पूछने लगे । इतनेमें लक्ष्मण भी खरदूषणको मारकर पाताललंकाका राज्य अपनी तरफसे विराधितको देकर रामके पास आया। क्योंकि विराधितने युद्ध में सहायता दी थी। लक्ष्मणने रामको जमीनपर लेटा देख सीताको न देखकर पूछा-सीता कहाँ है ? तब राम वैठकर लछमनको घावरहित देख कुछ हर्ष को प्राप्त हुआ । लक्ष्मणको छातीसे लगाकर वोले-भाई! में नहिं जानता कि-जानकी कहां गई। कोई हरकर ले गया अथवा 'सिंह व्याघ्र खा गया बहुत खोजा कहीं नहीं पाई । तब क्रोध रूप होकर लक्ष्मण वाला-हे देव ! चिंता करनेसे कुछ लाभ नहीं । यह निश्चय करना चाहिये कि कोई न कोई दैत्य ले गयाहै, वहां अवश्य होगी। मैं जाकर लाऊंगा। संदेह नहि करें, इसप्रकार प्रियवचन कहकर धैर्य बंधाया और निर्मल जलसे मुख धुलाया। तत्पश्चात् विशेष शब्द सुनकर रामने कहा-ये शब्द काहेकाहै ? लक्ष्मणने कहा-कि हे नाथ! चंद्रोदर विद्याधरके पुत्र विराधितने मुझे युद्धमें बड़ो सहायता दी थी सो आपके निकट पाया है उसकी सेनाक शब्द है । इतनेमें विराधितने आकर मंत्रीसहित रामको प्रणाम किया और प्रार्थना की कि-आप मेरे स्वामी हैं। हम