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________________ १०८ जेनवालवोधक - ४४। जिस कर्मके उदयसे वज्रके हाड़, वज्रके वेठन, और वज्रकी ही कीलियां हो उसे वजूर्षभनाराच संहनन कहते हैं। * ४५ । जिस कर्म के उदयसे वजूके हाड़ और वज्रकी कीली म्हों परंतु वेठन वज्रके न हों उसे वजूनाराच संहनन कहते हैं। 4:3 ४६ । जिस कर्मके उदयसे वेठन और कोली सहित हाड़ हों उसे नाराचसंहनन कहते हैं । : ४७ । जिस कर्मके उदयसे हाड़ोंकी संधि, अर्द्धकीलित हो उसे प्रर्द्धनाराचसंहनन कहते हैं । ४८ । जिस कर्मके उदयसे हाड ही परस्पर कीलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं । ४६ | जिस कर्मके उदयसे जुदे हाड नसोंसे बंधे हों, परस्पर कीले हुये न हों उसे प्रसंप्राप्त पाटिकासंहनन कहते हैं। ५० । जिस कर्मके उदयसे शरीर में रंग हो उसे वर्णनाम कर्म कहते हैं । : ५१ । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें गंध हो, उसे गन्धनाम कर्म - कहते हैं । : ५२ | जिस कर्मके उदयसे शरीरमें रस हो उसे रसनाम -कर्म कहते हैं । • ५३ | जिस कर्मके उदयसे शरीर में स्पर्श हो उसे स्पर्शनाम .: कर्म कहते हैं । ५४ | जिस कर्मके उदयसे श्रात्मांके प्रदेश मरण के पीछे और जन्म से पहिले रास्तेमें अर्थात् विग्रहगतिमें मरण से पहिले'के शरीर के आकार रहे, उसे आनुपूर्वी कर्म कहते हैं !
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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