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चतुर्थभाग .
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हजारों सहेली सेवा.करती थीं कोमत्त शय्यापर शयन करती नानाप्रकारके गीत सुनती थी, वह अब इस भयानक वनमें अकेली रहूंगी। वीणा मृदंगादिके सुंदर शब्दोंकी जगह सिंह, व्याघ्रों के शब्द सुन रही हूं । हाय ! इस भयानक वनमें अकेली कैसे रहूंगी इत्यादि विलाप करती थी। इसी समय पुंडरीकपुरका स्वामी राजा वजूजंघ हाथी पकडने के लिये इस वन प्राया था सो सीताजीका रुदन सुनकर पाया और पूछा कि-वहन ! तू कौन है ? इस भयानक वनमें किस पाषाणहृदय मनुष्यने तुझे 'अकेली छोड दिया है, पुण्यरूपिणी! अपनी इस अवस्थाका कारण शीघ्र कह ! शोक तज, धीरज धर, किसी वातका भय मत कर। मैं पुंडरीकपुरका राजा वजूजंघ हूं। तव सीताने कठिनाईसे शोक दवाकर अपना सब हाल कहा। वनजंघने कहा-तू मेरी धर्मकी बहन है। तू मेरे घर चलकर भाईके घरको पवित्र कर । ऐसा कह कर वह रयमें विठाकर ले गया । रानियोंने बड़े भादर "सत्कारसे इनकी सेवा प्रारंभ कर दी।
कुछ दिन बाद सीताजीके एक साथ दो पुत्र हुये-एकका नाम अनंग लवण, दूसरेका मदनांकुश रक्खा गया । नगरमें चिरंजीव चिरंजीव जय जय शब्द सुनाई देने लगे । जव ये दोनों कुमार बड़े हुये तो मामा वनजंघने राजकुमारोंके योग्य समस्त विद्यायें पढ़ाई, युद्ध विद्यामें बड़े चतुर हो गये।।
एक दिन ये कुमार बनमें कीड़ा करते थे, कि नारदजी दिखलाई दिये । कुमाने नमस्कार किया। नारदजीने पाशीर्वाद दिया-"तुम दोनों भाई राम लक्ष्मणकी तरह. फलो फूलो!'