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जैनवालबोधककुमारोंने पूछा कि-महाराज रामलक्ष्मण कौन है, कहां रहते हैं ? क्या उनकी राज्य विभूति हमसे भी जियादा है ? नारदजीने
आदिसे लेकर सीताजीके त्याग पर्यंतका सब हाल कह दिया मदनांकुशने कहा-निःसन्देह राम लक्ष्मण बड़े पराक्रमी बलधारी हैं परंतु लोकापवादके कारण सीताको त्याग दिया सो अच्छ नहिं किया। अनंगलवणने पूछा-महाराज ! अजोध्या यहाँसे कितनी दूर है ? नारदने कहा-यहांसे ६४० कोश उत्तरकी तरफ है क्यों किसलिये पूछते हो? अनंग लवणने कहा कि-हमराम लक्ष्मणसे लड़ेंगे और देखेंगे कि उनका बलवीर्य कितना है?
कुमारोंने घर श्राकर कहा-माताजी ! हम अयोध्या पर चढाई करेंगे। सीताने सुनकर नारदजीसे कहा कि-महाराज ! यह क्या स्वांग रच दिया क्यों बैठे विठाये वापबेटेमें वजवादी । मैं दुखिया बहुत दिनोंसे शोक दवाये बैठी थी. अब न पापका कुछ विगडेगा न इन वाप वेटेका, आफत श्राई तो मेरे पर । नारदजीने कहा यहन ! मैंने तो कुछ नहिं किया। इन्होंने प्रणाम किया, मैंने श्राशीर्वाद दिया कि तुम राम लक्ष्मणसे फलो फूलो । इन्होंने पूछा तो सव पूर्वका हाल कह दिया। लवण अंकुशने माताका दुःख सुन मातासे प्रार्थना की। माताने कहा-कि वेटो ! तुम लोगोंकी वीरता पर तो मुझे अभिमान है परंतु प्रेमानुगग भी तो दोनों तरफ है। तुम लोगोंमें किसोका भी हानि पहुंची तो मुझे मरी समझोक्यों कि तुमसे प्यारे मुझे राम लक्ष्मण हैं और उनसे प्यारे तुम हो। यह सुनकर कुमार आश्चर्य से बोले-यह कैसे ? तब सीताने कहा कि-श्रीरामातुमारे पिता हैं और लक्ष्मण तुमारे चाना हैं।