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________________ १६२ जैनबालबोधक है। प्राप इतने दिन रावण के यहां रहीं. इस कारगा नगर निवासी लोग आपके विषयमें संदेह कर रहे हैं उन्होके वचनोंको सुनकर श्रीराम प्रभुने दया स्नेह और ममताको छोडकर अकीतिके भय से आपको इस वनमें छोड देनेकी आशा दी है। लक्ष्मण जीने बहुत कुछ समझाया परंतु स्वामीने थापको निर्दोष स्त्रीकार करके भी यह कार्य किया है । हे माता ! अव तुमको एक धर्म ही शरण है ।" -- यह दज्रपातके समान वचन सुनते ही सीता मूर्छा खाकर जमीन पर गिर पडी । थोड़ी देर में गदगद होकर कहने लगो 'सेनापति ! स्वामी ने यह अच्छा नहिं किया । अस्तु, उनकी इच्छा, वे प्रसन्न रहें मुझे उनकी आशा शिरोधार्य है। तुम जावो, प्रसन्न दहो । स्वामी से यह अवश्य कह देना कि मेरे त्यागका कोई विषाद न करें, धैर्यका अवलम्वन कर प्रजाकी सदा रक्षा करें परंतु यह ख्याल रक्खे कि -लोक निंदासे मुझे तौ छोड दिया परंतु प्रजा यदि आपके धर्मकी निंदा करें तो मेरी समान परीक्षा किये बिना कहीं धर्म न छोड बैठें। मेरे अपराधोंको क्षमा करें और धर्ममें लवलीन रहें । इत्यादि कहकर फिर सीताजी वेहोश हो गई । कृतांत उसी प्रकार निर्जन भयानक वनमें छोडकर नोकरी पेलेकी निंदा करता हुआ चला आया । सीता जब सचेत हुई तो अनेक विलाप करके मनमें विचारने लगी- मैंने पूर्व जन्ममें बडा भारी पाप किया है। किसीका अवश्य वियोग किया है । उसीका यह फल है। हाय ! मैं राजा जनककी पुत्री वलभट्टको पटरानी स्वर्ग समान महलोंकी रहनेवाली
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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