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________________ चतुर्थ भाग। है। लोग कहते सुनते हैं तो वे लोग कहदेते हैं कि-यथा राजा तथा प्रजा, हमारे राजाके घरमें ही ऐसा होता है तो हमें क्याभय है ? इत्यादि कहकर उच्छृखलतामें और भी बढ़ जाते हैं सो श्राप हमारे रक्षक है. श्राप इसका प्रबंध करें।" श्रीरामने सोचा-यह वात सीताके कारण होने लगी है। और हमारे फुलको कलंक लगाती है इसलिये सीताको देश निकाला देने से ही यह कलंक दूर होगा । यह विचार लक्ष्मणसे प्रगट किया तो लक्ष्मणने कुपित हो कर सीतापर कलंक लगाने वालोंको दंड देनेका प्रस्ताव किया। श्रीरामने समझा कर ठंडा किया और सीताको निकाल देनेका ही प्रस्ताव ठीक किया। फिर कृतांतवक सेनापतिको बुलाकर प्राज्ञा दी गई कि सीताको समस्त तीर्थ और मंदिरों के दर्शन कराके फिर सिंह वनमें शेड़ आना । - कृतांतवक पराधीन दास विचारा क्या करता?लाचार होकर' वैसा ही करना स्वीकार किया। सीताजीको रथमें विठाकर' समस्त तीर्थोके दर्शन कराके सिंहवनमें ले जाकर रथ थाम दिया। कृतांतवकको बडा दुःख हुअा। वह रोने लगा। सीताने कहा-भाई. तू इतना व्याकुल होकर क्यों रोता है ? इस वक्त तुझे बहुत घबराया हुआ देखती हूं! शीघ्र कहो,क्या बात है ? मेरा हृदय फटा' जाता है। आर्यपुत्रका (श्रीरामका) कुछ अमंगल तो नहिं हुप्रा ? . . . . . . . . । • सीताजीको इस प्रकार व्याकुल देख सेनापतिने अपने चित्त को स्थिर करके कहा- 'माता ! क्या कहूं कहते मेरीछाती फटती ।
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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