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________________ चतुर्थ माग | :: धर्मभावना ॥ ! २८१ -जो भाव मोहतें न्यारे । हग ज्ञान व्रनादिकं मारे | · सो धर्म जबै जिव घारै । तब ही सुख अचल- निहारे ||१४|| सो धर्म मुनिन करिधरिये । तिनकी करतूति उचरिये ॥ 'ताको सुनिकै भविमानी । अपनी अनुभूति पिछानी ||१५|| जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र भाव मोहसे पृथक् हैं ये ही धर्म हैं. जब ऐसा धर्म जीव धारण करता है, तब ही मुक्तिका अचल सुख देख पाता है। ऐसा धर्म मुनियोंके द्वारा ही धारण किया जाता है । इस कारण अब अगली दालमें उन · मुनियोंकी करतूत (क्रिया) कही जाती है उसको सुनकरके हे भव्य प्राणी ! अपनी अनुभूति पिछानो ॥ १५ ॥ ५०. श्रीमद्भट्टाकलंकदेव । ईस्वी सन् ८०० के लगभग मान्यखेट नगर में शुभनुंग नामका - राजा था । उसका प्रधान मंत्री पुरुषोत्तम श्रोर उस मंत्रीके पद्मा'चती नामकी भार्या तथा अकलंक निष्कलंक नामके दो पुत्र थे । 'एक समय नंदीश्वर पर्वकी अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम मंत्रीने जिन मंदिर में जाकर अष्टाहिकाके ८ दिनका रविगुप्तमुनिके निकट भार्यासहित ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया । उस समय कौतुकसे 'अपने दोनों पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलवा दिया । जब ये दोनों भाई विवाह योग्य युवावस्थाको प्राप्त हुए और पिताने इनके विवाहकी चर्चा उठाई। तब दोनों भाइयोंने हाय
SR No.010334
Book TitleJain Bal Bodhak 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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